Rishte..

कुछ रिश्ते अजीब ही डोर मे बंधे होते है तकरार से शुरू होते है , नफरत के साए मैं पनपते है , गिरते है पड़ते है फिर भी कायम रहते है ! नफरत बढती जाती है और रिश्तें की गाँठ और गहरी होती जाती है इतनी की एक दिन नफरत भी और बढ़ने से शर्मा जाती है और वो रिश्ता सिर्फ एक बंधन बन के रह जाता है , लेकिन नफरत का ! कभी कभी ऐसा लगता है की जैसे नफरत के उस माहोल मैं कुछ तो है जो मुझसे कहता है की मै इस अनसुनी , अनजाने , अनकहे से एहसास को एक मौका तो दूं , पर जिस रिश्ते की नीव ही नफरत पर रखी गयी हो उससे कुछ भी उम्मीद लगाना नादानी नहीं तो और क्या है ? पर लगता है यह नादानी मैं कर बैठी हूँ ।।एक बार नहीं , कई बार , वर्ना क्यों इतनी नफरत के बावजूद मैं उन्हें याद करती हूँ ? क्यूँ मैं आपसे बात करने को तरसती हूँ?क्यूँ सिर्फ आपकी एक झलक पाने को मैं सब छोड़ने को तैयार है ? क्यों मैं आपसे ही लड़ती हूँ , क्यों बेवजह झगड़ती हूँ ? और आपके जाने के बाद आपकी ही की रह देखती हूँ ? हवाओं ...